जैविक खेती प्रबन्धन में फसल उत्पादन के प्रमुख बिन्दु

- कम से कम जुताई: जमीन की बार-बार गहरी जुताई करते रहने से मिट्टी के सूक्ष्मजीव एवं जंतुओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है। भूमि क्षरण से पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी आती है इसलिए जमीन की जुताई केवल आवश्यकतानुसार ही करनी चाहिए।
- मिट्टी की सुरक्षा: वायु एवं जल से होने वाले भूक्षरण को हर हाल में रेका जाना चाहिए। कोई भी प्राकृतिक संसाधन बेकार न जाये और उसका सदुपयोग हो, सारी जमीन वनस्पति से ढकी रहे, वनस्पति एवं पत्तियाँ वर्षा के वेग को कम करे तथा जैव अवशिष्ट से मिट्टी की सतह को ढक कर रखा जाये ।
- मिश्रित कृषि: मिश्रित कृषि में फसल उत्पादन एवं पशुपालन एक दूसरे के पूरक है और जैविक खेती के आधार स्तम्भ है।
- फसलों एवं प्रजातियों का चयन: विभिन्न फसलों एवं उनकी प्रजातियों की चयन प्रक्रिया मानवीय आवश्यकता आधारित न होकर स्थान विशेष की मिट्टी, वातावरण एवं मौसम पर आधारित होनी चाहिए। जहाँ तक संभव हो ऐसी प्रजातियों का चयन किया जाना चाहिए जो स्थानीय हो और वहाँ के वातावरण के अनुकूल हो। प्रत्येक फसल को उसके निर्धारित मौसम में ही उगाना चाहिए।
- मिश्रित फसल एवं बहु फसलों का प्रयोग: जैविक खेती में फसल चक्र परिवर्तन का एक प्रमुख स्थान है। अलग-अलग फसलें भूमि की अलग-अलग परतों में से पोषक तत्व प्राप्त करती है। फसल परिवर्तन से भूमि की सभी परतों से पोषकों का उपयोग बराबर मात्रा में होता है।
- हरी खाद फसल: हरी खाद प्रक्रिया एक अति प्राचीन एवं जानी पहचानी प्रक्रिया है और जैविक खेती में इसका एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रक्रिया में हरी खाद फसल को अच्छी बढवार के बाद काटकर मिट्टी में मिला दिया जाता है और उसे वहीं सड़ने दिया जाता है। इससे मृदा में जैव कार्बन की मात्रा में पुर्नस्थापन में सहायता मिलती है। इस प्रक्रिया में फसल को उसी खेत में उगाकर काटकर व मिट्टी में दबा दिा जाता है या बारह से हरा जैविक पदार्थ लाकर खेत की मिट्टी में मिला दिया जाता है और उसे सड़ने दिया जाता है।
- सड़े हुए जैविक खाद का प्रयोग: कृषि का मुख्य आधार जैविक पदार्थ है अतः किसी भी जैव अवशिष्ट या जैव पदार्थ का दुरूपयोग एवं बर्बादी रोकना अति आवश्यक है। इसे जलाकर या वैसे ही खुला छोड़कर नष्ट नहीं होने दे के बजाय संरक्षित कर जैविक खाद में परिवर्तित करना चाहिए।
- जैव उर्वरकों का प्रयोग: वैज्ञानिकों ने निर्विवाद रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि मृदा में रहने वाले कुछ सूक्ष्म जीव वायुमंडलीय नत्रजन एवं मिट्टी में उपलब्ध फास्फोरस को उपलब्ध कराने में सक्षम है। इन सूक्ष्मजीवों की आबादी एवं क्रियाशीलता मृदा मंे उपलब्ध जैविक पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करती है। ये जीवाणु जेसे एजोटोबेक्टर, एजोस्पीरीलम, राइजोबियम, नील हरित शैवाल, बैम इत्यादि जैव उर्वरक के रूप में प्रयोग करने पर, पौध जड़ों के आस-पास तीव्र गति से बढ़ते है और अपनी जैविक क्रिया द्वारा विभिन्न पोषक तत्वों को उपलब्ध रूप से परिवर्तित कर फसलों को लाभ पहुंचाते है।
- जैविक पदार्थ का पुनः प्रयोग: मृदा में जैविक पदार्थ की मात्रा बढ़ाने का एक प्रमुख तरीका है, फसल के शेष बचे अवशिष्टों का प्रयोग। इसमें फसल एवं अन्य पौधों के अवशिष्टों को मिट्टी में दबा दिया जाता है और प्राकृतिक रूप से धीरे-धीरे सड़ने दिया जाता है।
- खरपतवार द्वारा मल्चिंग करना: हालांकि कृषि विज्ञान के विद्यार्थियों को सर्वप्रथम यह बताया जाता है कि अच्छी एवं स्वस्थ उपज तथा पोषकों के प्रयोग से समुचित लाभ उठाने के लिये यह जरूरी है कि खरपतवारों को खेतों में बिल्कुल न पनपने दिया जाये परन्तु इन्दौर में किये अनेक परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि इन खरपतवारों को उखाड़ने के पश्चात् बाहर फेंकने के बजाय यदि उसी खेत में भूमि की सतह को ढकने के काम में लिया जाये तो उससे फसल एवं मिट्टी दोनों को लाभ होता है। चंूकि यह खरपतवार अवशिष्ट ताजा एवं हरा होता है अतः बहुत शीघ्रता से सड़ता है तथा भूमि की सतह पर जैविक पदार्थ की सतह बना देता है जिससे न केवल पोषक उपलब्धता बढ़ जाती है बल्कि मृदा के सूक्ष्मजीव एवं जन्तुओं की रखा व अच्छी बढ़वार होती है और मिट्टी में नमी भी भरपूर मात्रा लम्बे समय तक बनी रहती है।
- समन्वित कीट प्रबन्धन: समन्वित कीट प्रबन्धन से हानिकारक रसायनों के प्रयोग को बहुत कम किया जा सकता है। अनेक अनुशंषाओं में तो अब यह बताया जाता है कि यदि कीटनाशक का प्रयोग आवश्यक हो तो बजाय रासायनिक कीटनाशकों के, वानस्पतिक कीटनाशक या कीटरोधक जैसे नीम तेल, नीम अर्क, करंज, महुआ उत्पादों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इससे न केवल पर्यावरण की सुरक्षा होगी, बल्कि वातावरण एवं जल प्रदूषण से भी मुक्ति मिलेगी।
- सिंचाई जल का उपयुक्त प्रयोग: कृषि उत्पादन में जल अति आवश्यक उपादान है और इसका प्रयोग सही मात्रा में किया जाना चाहिए। जल के अधिक प्रयोग के नुकसान सर्वविदित है। अतः जैविक खेती प्रक्रिया में जल प्रबन्धन को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है और अनुशंषा की गई कि सिंचाई आवश्यकतानुसार सही समय व सही मात्रा में ही की जानी चाहिए।