हरी खाद

हरी खाद बनाने की विधियाँ:
हरी खाद की फसल को खेत की मेड़ों पर उगाया जाता है या पेड़ व झाड़ियों की कोमल टहनियाँ, शाखाएँ व पत्तियों को इकट्ठा करके मृदा मंे दबाया जाता हैै। सामान्यतया हरी खाद निम्न विधियों से बनाई जाती है-

  1. खेत में हरी खाद की फसल उगाकर मृदा में दबाना: इस विधि में हरी खाद बनाने के लिए जिस खेत मे हरी फसल उगाते है, उसी खेत में उसे पलटकर दबा देते है। इस विधि में हरी खाद के लिए दलहनी या अदलहनी फसल की बुवाई की जाती है। फसल उन्हीं क्षेत्रों में उगाई जाती है जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा हो। नमी के अभाव मंे हरी खाद की फसल न तो वृ˜ि कर सकती है, न ही दबाने पर सड़ पाती है। हरी खाद हेतु शीघ्र पकने वाली फसलें जैसे-ढे़ंचा, ग्वार, मूँग, उड़द, सनई, लोबिया आदि की बुवाई कर पुष्पावस्था मंे खेत में दबा देते है।
  2. हरी खाद की हरित पर्ण विधि: इस विधि में पेडों व झाडियों की कोमल (हरी) शाखाएँ, टहनियाँ व पत्तियाँ को अन्य खेत या क्षेत्र से तोडकर वाँछित खेत की मृदा में जुताई कर दबाते है। पौधों के कोमल भाग में थोडी नमी होने पर भी वे सड़ जाते है। इस विधि से हरी खाद उन क्षेत्रों में बनाते है जहाँ कि वार्षिक वर्षा कम होती है। इस विधि में अन्य खेत मंे उगाई गई हरी खाद की फसल को भी काटकर वांछित खेत में डालकर मृदा में दबा देते है। बहुत से पौधो को खेत की मेडो और बेकार भूमि में हरी पत्तियों के उद्ेश्य से उगाया जाता है। इन पेड़ों और झाड़ियों की हरी पत्तियों को तोडकर या काटकर खेत में डाल देते है। मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर इन पत्तियों को मृदा के अन्दर दबा देते है। इस प्रकार की पत्तियाँ दलहनी व अदलहनी दोनों प्रकार के पौधों की हो सकती है। उदाहरण – सुबबूल, करंज, सदाबहार, अमलता, सफेद आक आदि।

हरी खाद की फसल के आवश्यक गुण:
1. फसल शीघ्र बढ़ने वाली होनी चाहिए।
2. फसल में पत्तियों व शाखाओं की संख्या अधिक हो, जिससे प्रति हैक्टर अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ मिलाया जा सकें।
3. फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम हों, ताकि वह आसानी से सड़ सकें।
4. फसल फलीदार (दलहनी) होनी चाहिए, जिससे उसके पौधों की जड़ों में ग्रन्थियाँ होने के कारण राइजोबियम द्वारा वायुमण्डल से नाइट्रोजन का मृदा में स्थिरीकरण हो सके।
5. फसल गहरी जड़ प्रणाली की हो, जिससे मिट्टी भुरभुरी बन सकें और मृदा में गहराई से पोषक तत्व ग्रहण कर पौधे से संचित कर सके।
6. हरी खाद की फसल ऐसी होनी चाहिये जो कम उपजाऊ भूमि में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सके।
7. फसल में कीटों व बीमारियों का प्रकोप कम होता हो।
8. फसल कम अवधि की हो।
9. फसल को ज्यादा खाद व उर्वरक की आवश्यकता न हों।
10. फसल-चक्र में हरी खाद की फसल का उचित स्थान हो।
11. फसल को कम पानी की आवश्यकता हो।

हरी खाद के लिए उपयुक्त फसलें: हरी खाद के लिए प्रयोग मे लाई जाने वाली फसलों को दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते है-

दलहनी एवं अदलहनी फसलें:
1. दलहनी फसलें – दलहनी या फलीदार फसलें हरी खाद के लिये उपयुक्त रहती है, क्योंकि इन फसलों की जड़ों की ग्रन्थियों में उपस्थित राइजोबियम जीवाणु वायुमण्डल से नाइट्रोजन ग्रहण करते है। साथ ही इन फसलों की वानस्पतिक बढ़वार भी अच्छी होती है तथा इनकी जड़ें भी गहरी जाती है व फसल अवधि भी कम होती है।
सनई – इसका प्रयोग उत्तरी भारत में किया जाता है। यह बुवाई के 6-8 सप्ताह बाद मिट्टी में पलट दी जाती है। लगभग 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन तथा 280 क्विंटल हरा वानस्पतिक पदार्थ प्रति हैक्टर इस फसल से प्राप्त हो जाता है।
ढैंचा – हरी खाद के रूप में ढैंचा का प्रमुख स्थान है। यह फसल ऊसर भूमियों के सुधार में भी काम में ली जाती है। 45 दिन में फसल को खेत में पलट दिया जाता है। इससे लगभग 75 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाती है।
ग्वार -भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में जहाँ वर्षा कम होती है ग्वार हरी खाद के लिए किया जाता है। इससे लगभग 65 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाती है।
लोबिया– खरीफ ऋतु मंे पौधों की अच्छी बढ़वार होने के कारण ही खाद के लिए यह महत्वपूर्ण फसल है। इससे 150 क्विंटल हरा पदार्थ तथा कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त होती है।

  1. अदलहनी फसलंे– ये फसलें मिट्टी मंे नाइट्रोजन स्थिरीकरण तो नहीं करती है, किन्तु विलय नाइट्रोजन का संरक्षण अवष्य करती है तथा मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि करती है, जिनसे मृदा में सुधार होता है। हरी खाद के लिए अदलहनी फसलों में मक्का, जौ, ज्वार आदि का प्रयोग किया जाता है। कई बार खरीफ में खेत में खरपतवार उगने देते है तथा उनमें बीज बनने से पूर्व ही खेत में पलट दिया जाता है। हमारें देश में हरी खाद हेतु अदलहनी फसलों का प्रचलन नहीं है।
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